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मंत्रों की महता


"मननात त्रायते यस्मात तस्मान्मन्त्र: प्रकीर्तित:"
भारत के किसी प्राचीन ऋषि नें "मन्त्र" शब्द की इस व्युत्पत्ति द्वारा मन्त्र की महत्ता पूर्ण रूप से व्यक्त कर दी है, साथ ही मन्त्र-योग की साधना-प्रक्रिया का बीज भी हमें प्रदान कर दिया है. मन्त्र-साधना में 'मूल' तथ्य है-----'मनन'----अर्थात मन्त्र की भावना और अक्षरों के साथ तादात्मय. वास्तव में भावना और अक्षर तादात्मय ही मन्त्र की सार्थकता है और यही उसकी विराट शक्ति है, जिसके बल पर मन्त्र असाध्य कार्य को भी साध्य कर देता है, अप्राप्य की भी प्राप्ति करा देता है और इष्टसिद्धि में सहायक होता है.

भारतीय मनीषियों नें नाना रूपों में साधना करते हुए नाना मन्त्रों के रूप में मानवीय शक्ति के असीम स्त्रोतों के साथ अपने को सम्बद्ध कर लिया है. यही कारण है कि यहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के विभिन्न मन्त्र हैं और प्रत्येक मन्त्र के द्वारा किसी देव विशेष की दिव्यात्मा के साथ सम्बन्ध जोडकर उसके द्वारा अभीष्ट कार्यों को सिद्ध किया जाता है. जैसे वैदिक परम्परा में गायत्री मन्त्र है. महर्षि विश्वामित्र नें इसकी ऎसी अक्षर-योजना की है उसके द्वारा साधक की आत्मा सूर्य-तेज के साथ तदात्म्य स्थापित करके अपनी अभीष्ट पूर्ति करती है.

कहते हैं कि महर्षि वाल्मीकि को नारदजी नें 'राम' मन्त्र प्रदान किया था, परन्तु बाल्मीकि 'राम' के स्थान पर 'मरा-मरा' जपते हुए ही पूर्ण-काम सर्वसमर्थ महर्षि बन गए. क्योंकि 'राम' एक मन्त्र है और मन्त्र का कोई अर्थ हो ही यह आवश्यक नहीं, क्योंकि मन्त्र ध्वन्यात्मक होता है और प्रत्येक ध्वनि में और उस ध्वनि के प्रकम्पनों में वातावरण, भावना और विचारों को बदलने की अदभुत क्षमता होती है. यही कारण है कि भारतीय मनीषी शब्द को 'ब्रह्म' कहते आए हैं------ब्रह्म विराट है------ध्वनि की विराटता विज्ञान-सम्मत है, क्योंकि ध्वनि सैकिंडों में लाखों मीलों का फासला तय करते हुए ब्राह्मण्ड को व्याप्त कर लेती है.

आज के इस आधुनिक जड विज्ञान में ध्वनि को विद्युत का एक रूप माना गया है, परन्तु भारतीय तत्ववेत्ता विद्युत को भी ध्वनि का ही एकरूप मानते हैं. मूल विद्युत नहीं बल्कि ध्वनि है. मन्त्रोच्चारण करते समय व्यक्ति के रोम-रोम में ध्वनि की विद्युत रूप धारा चारों ओर फैलने लगती है. विशेष साधक जो साधना के रहस्य-सिन्धु की गहराईयों तक पहुँच जाते हैं, वे विभिन्न आसनों एवं विभिन्न मुद्राओं द्वारा ध्वनि अर्थात मन्त्र जाप करते समय शरीर में दौडने वाली उस विद्युत धारा को इस प्रकार नियन्त्रित कर लेते हैं कि जैसे गहन अन्धकार में सहसा बिजली के चमकने से सबकुछ प्रत्यक्ष हो जाता है, वैसे ही उनके सामने सार्वभौम सत्य अपने समग्र रूप में एक साथ प्रकट हो जाता है. वैदिक परम्परा में इसी को 'पूर्णमद: पूर्णमिदं' आदि रूपों में पूर्ण ज्ञान कहा जाता है. इस पूर्ण ज्ञान के मूल में जो ध्वन्यात्मक विद्युत-प्रवाह है, उसका मूल स्त्रोत मन्त्र ही है. मन्त्र उपासना द्वारा ही आप उस वास्तविक एवं पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं अन्यथा नहीं.

जिस प्रकार रेडियो, टेलिवीजन में तारों को विशिष्ट विधि से आपस में संयुक्त कर देने पर उनमे प्रसारण की क्षमता जागृत हो जाती है, ठीक वैसे ही हमारे इस मानवीय शरीर में भी प्रकृति नें नसों-नाडियों और शिराओं आदि को इस प्रकार से परस्पर आपस में सम्बद्ध किया हुआ है जिससे उनमें ध्वनि नियन्त्रण, ध्वनि-प्रसारण और ध्वनि-उत्पादन आदि की सर्व क्षमताएं मौजूद है. जिस प्रकार औषधियों में रोगनाशक शक्ति होती है, परन्तु वह शक्ति विभिन्न उपायों, विधियों और मात्रा से ही काम करती है, इसी प्रकार प्रत्येक मन्त्र की विशिष्ट अक्षर-योजना से शारीरिक विद्युत-धारा जो प्रत्येक इन्सान के मस्तक के आसपास रहती है, शरीर के विभिन्न अंगों से प्रवाहित होने लगती है. फिर उसके द्वारा स्वेच्छा से अपने कार्य सिद्ध किए जा सकते हैं.

मन्त्र-योग में 'ध्वनि' ही प्रमुख है, अत: मन्त्रों में अर्थ पर ध्यान न देकर ध्वनि-योजना की विशेष विधि ही अपनाई जाती है. यही कारण है कि साधारण से दिखने वाले मन्त्र जिनका अपने आप में कोई विशेष अर्थ नहीं होता, जो बिल्कुल निरर्थक प्रतीत होते हैं, उनमें इतनी विराट् शक्ति समाहित रहती है कि जिसे सिर्फ उस मन्त्र का उपासक ही जान सकता है. महामन्त्र ' ॐ ' का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं, विभिन्न बीज मन्त्रों जैसे ह्रां, ह्रीं, ह्रूं, ह्रौं, ह्र:, क्रीं, ऎं, ग्लौं इत्यादि भी कोई अर्थ नहीं रखते------लेकिन मन्त्र में ये अक्षर सिर्फ ध्वनि-प्रकम्पन के लिए प्रयुक्त होते हैं.