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वैदिक ज्योतिष


ज्योतिष का नाम आते ही किसी भी इन्सान का मन अपने भविष्य के रहस्यों की जानकारी प्राप्त कर लेने के लिए आतुर हो उठता है. व्यक्ति किसी ज्योतिषी के पास यही आशा लेकर जाता है कि उसे वह जो कुछ भी बतलाएगा, वह अक्षरश: उसी तरह से घटित होगा. लेकिन यह सबकुछ सिर्फ उस ज्योतिषी पर निर्भर करता है कि वह उसकी जन्मकुंडली का अध्ययन कर अपनी समझ, अपने ज्ञान के अनुसार उसके भविष्य के बारे में फलकथन करता है.

दरअसल ज्योतिष एक ऎसी विद्या है जिसकी सीमाएं बहुत विस्तृत हैं. प्राचीनकाल के ऋषि-मुनियों, शास्त्रकारों नें प्राणीमात्र से संबन्धित प्रत्येक पहलू और तथ्य का अध्ययन करने के आधार एवं माध्यम खोजकर दुनिअय के सामने रख दिए हैं, इतने पर भी सबका अध्ययन-मनन करना और व्यवहार में स्वयं की समझ-बूझ, तर्कशक्ति एवं इससे भी बढकर उसके आत्मज्ञान के बल पर सटीक परिणाम तक पहुँचना ज्योतिषी की अपनी पात्रता पर निर्भर करता है.

ज्योतिष की उपयोगिता प्राणी के गर्भाधान के समय से प्रारम्भ हो जाती है. जब प्राणी गर्भमुक्त होता है अर्थात जन्म ले लेता है, वही क्षण उसके सम्पूर्ण जीवन के फलित का आधार बनता है. गर्भ में आने से जन्म ले लेने तक की अवधि तक वह जो समय व्यतीत करता है, उसके पीछे प्रकृति की सप्रयोजन क्रिया रहती है.

स्त्री-पुरूष के मिलन से गर्भाधान की जो स्थिति बनती है, उस समय आकाशमंडल में नवग्रहों की स्थिति पर व्यक्ति का शरीर, चरित्र, परिवार एवं उसके जीवन की सम्पूर्ण स्थितियाँ निर्भर करती हैं. स्त्री के रजस्वला होने में चन्द्र-मंगल की स्थिति मूल कारण रहा करती है और पुरूश को सन्तानोत्पन करने की सक्षम स्थिति में लाना चन्द्रमा और शुक्र पर निर्भर करता है. यूँ सन्तानोत्पत्ति में अन्य ग्रह भी सहायक हैं लेकिन मुख्य भूमिका शुक्र और मंगल की ही रहती है.

संसार में जो भी घटनायें घटित होती हैं, उनके अनेक कारण बतालये जाते हैं जैसे इन्सान का कर्म या कहें प्रारब्ध, ईश्वर की इच्छा अथवा प्रकृति का नियमित प्रवाह. इन घटनाओं का इन नवग्रहों से क्या सम्बन्ध है? ऊपर कहे गये बलवान कारणों के रहते संसार के कार्यों में ग्रहस्थिति कय परिवर्तन ला सकती है? इन सवालों का जवाब सबके एकत्व का विचार कर लेने पर मिलेगा. ईश्वर की इच्छा ही प्रकृति अक प्रवाह है. प्रकृति के तीन गुणों राजस-सात्विक-तामस के प्रवाह के अनुसार ही ग्रहों की निश्चित गति और मनुष्यों का प्रारब्ध है और प्रारब्ध के अनुसार ही फल मिलता है. शरीर की उत्पत्ति भी प्रारब्ध के अनुसार ही होती है. जैसा जिसका कर्म होता है वैसी उसकी देह होती है. जिस देह में प्रारब्ध के अनुसार जैसी कर्म वासनायें होती हैं, उसके जीवन में जिस प्रकार की घटनायें घटने वाली होती हैं----उसी के अनुरूप उस देह की उत्पत्ति के समय वैसी ही ग्रहस्थिति आकाशमंडल में होती है. ग्रहों की स्थिति समान होने पर भी देश-काल और देह-भेद के कारण उनका भिन्न-भिन्न प्रभाव पडता है. इसलिए वैदिक ज्योतिष में ग्रहों को किसी नूतन फल का विधान करने वाला न बतलाकर व्यक्ति के अपने प्रारब्ध के अनुसार घटनेवाली घटनाओं का सूचक/सन्देशवाहक कहा गया है------"ग्रहा: वै कर्म सूचका"