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इच्छानुसार संतान प्राप्त करने के उपाय

विवाहोपरांत दंपति को संतान प्राप्ति की प्रबल उत्कंठा होती है. आज जब लडकियां भी पढ लिखकर काफ़ी उन्नति कर रही हैं तो भी अधिकांश दंपतियों की दबे छुपे मन में पुत्र संतान ही प्राप्त करने की इछ्छा रखते हैं. यों तो संतान योग जातक की जन्मकुंडली में जैसा भी विद्यमान हो उस अनुसार प्राप्त हो ही जाता है फ़िर भी कुछ प्रयासों से मनचाही संतान प्राप्त की जा सकती है. यानि प्रयत्न पूर्वक कर्म करने से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है.

योग्य पुत्र प्राप्त करने के इच्छुक दंपति अगर निम्न नियमों का पालन करें तो अवश्य ही उत्तम पुत्र प्राप्त होगा. स्त्री को हमेशा पुरूष के बायें तरफ़ सोना चाहिये. कुछ देर बांयी करवट लेटने से दायां स्वर और दाहिनी करवट लेटने से बांया स्वर चालू हो जाता है. इस स्थिति में जब पुरूष का दांया स्वर चलने लगे और स्त्री का बांया स्वर चलने लगे तब संभोग करना चाहिये. इस स्थिति में अगर गर्भादान हो गया तो अवश्य ही पुत्र उत्पन्न होगा. स्वर की जांच के लिये नथुनों पर अंगुली रखकर ज्ञात किया जा सकता है.

योग्य कन्या संतान की प्राप्ति के लिये स्त्री को हमेशा पुरूष के दाहिनी और सोना चाहिये. इस स्थिति मे स्त्री का दाहिना स्वर चलने लगेगा और स्त्री के बायीं तरफ़ लेटे पुरूष का बांया स्वर चलने लगेगा. इस स्थिति में अगर गर्भादान होता है तो निश्चित ही सुयोग्य और गुणवती कन्या संतान प्राप्त होगी.

मासिक धर्म शुरू होने के प्रथम चार दिवसों में संभोग से पुरूष रुग्णता को प्राप्त होता है. पांचवी रात्रि में संभोग से कन्या, छठी रात्रि में पुत्र, सातवी रात्रि में बंध्या पुत्री, आठवीं रात्रि के संभोग से ऐश्वर्यशाली पुत्र, नवी रात्रि में ऐश्वर्यशालिनी पुत्री, दसवीं रात्रि के संभोग से अति श्रेष्ठ पुत्र, ग्यारहवीं रात्रि के संभोग से सुंदर पर संदिग्ध आचरण वाली कन्या, बारहवीं रात्रि से श्रेष्ठ और गुणवान पुत्र, तेरहवी रात्रि में चिंतावर्धक कन्या एवम चौदहवीं रात्रि के संभोग से सदगुणी और बलवान पुत्र की प्राप्ति होती है. पंद्रहवीं रात्रि के संभोग से लक्ष्मी स्वरूपा पुत्री और सोलहवीं रात्रि के संभोग से गर्भाधान होने पर सर्वज्ञ पुत्र संतान की प्राप्ति होती है. इसके बाद की अक्सर संतान नही होती. अत: इच्छित संतान प्राप्ति के लिए उपरोक्त तथ्यों का ध्यान रखते हुये बताये गये स्वरों के अनुसार कर्म करना चाहिये.

जिन लोगों को सुंदर, दिर्घायु और स्वस्थ संतान चाहिये उन्हें गडांत, ग्रहण, सूर्योदय एवम सूर्यास्त्काल, निधन नक्षत्र, रिक्ता तिथि, दिवाकाल, भद्रा, पर्वकाल, अमावस्या, श्राद्ध के दिन, गंड तिथि, गंड नक्षत्र तथा आंठवें चंद्रमा का त्याग करके शुभ मुहुर्त में संभोग करना चाहिये.

पुरातन काल में दंपति आज की तरह हर रात्रि को नही मिलते थे सिर्फ़ उनका सहवास सिर्फ़ संतान प्राप्ति के उद्देष्य के लिये होता था. शुभ दिन और शुभ मुहुर्त के संभोग से वो योग्य संतान प्राप्त कर लेते थे. वर्तमान काल में युवा पीढी की उदंडता, अनुशासनहीनता, लडाई झाग्डे की प्रवॄति वाले उग्रवादी होने के लिये वास्तव में उनके माता पिता ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वे किसी भी दिन, किसी भी समय संभोग करके गर्भ धारण करके संतान पैदा कर लेते हैं.

ऋषि कश्यप और उनकी स्त्री दिति इसके ज्वलंत उदाहरण हैं एक दिवस महर्षि कश्यप संध्या समय नदी तट पर संध्या हेतु जा रहे थे कि उसी समय उनकी पत्नि दिति ने कामाभिभूत होकर महर्षि कश्यप को सहवास के लिये निमंत्रण देकर उन्हें ऐसा करने के लिये बाध्य कर दिया. इस संध्या काल के गर्भाधान की वजह से ही दिति ने हिरणकश्यप जैसी राक्षस संतान पैदा की.

दिति की बहिन एवम महर्षि कश्यप की द्वितीय पत्नि अदिति धार्मिक नियमों का पालन करते हुये केवल रात्रि के शुभ मुहुर्तों में ही संभोग रत होते थे अत: अदिति की गर्भ से सारी देवता संताने ही पैदा हुई.

गर्भाधान के समय केंद्र एवम त्रिकोण मे शुभ ग्रह हों, तीसरे छठे ग्यारहवें घरों में पाप ग्रह हों, लग्न पर मंगल गुरू इत्यादि शुभ कारक ग्रहों की दॄष्टि हो, विषम चंद्रमा नवमांश कुंडली में हो और मासिक धर्म से सम रात्रि हो, उस समय सात्विक विचार पूर्वक योग्य पुत्र की कामना से यदि रति की जाये तो निश्चित ही योग्य पुत्र की प्राप्ति होती है. इस समय में पुरूष का दायां एवम स्त्री का बांया स्वर ही चलना चाहिये, यह अत्यंत अनुभूत और अचूक उपाय है जो खाली नही जाता. इसमे ध्यान देने वाली बात यह है कि पुरुष का जब दाहिना स्वर चलता है तब उसका दाहिना अंडकोशः अधिक मात्रा में शुक्राणुओं का विसर्जन करता है जिससे कि अधिक मात्रा में पुल्लिग शुक्राणु निकलते हैं. अत: पुत्र ही उत्पन्न होता है.

यदि पति पत्नि संतान प्राप्ति के इच्छुक ना हों और सहवास करना ही चाहें तो मासिक धर्म के अठारहवें दिन से पुन: मासिक धर्म आने तक के समय में सहवास कर सकते हैं, इस काल में गर्भादान की संभावना नही के बराबर होती है.

तीन चार मास का गर्भ हो जाने के पश्चात दंपति को सहवास नही करना चाहिये. अगर इसके बाद भी संभोग रत होते हैं तो भावी संतान अपंग और रोगी पैदा होने का खतरा बना रहता है. इस काल के बाद माता को पवित्र और सुख शांति के साथ देव आराधन और वीरोचित साहित्य के पठन पाठन में मन लगाना चाहिये. इसका गर्भस्थ शिशि पर अत्यंत प्रभावकारी असर पदता है, अभिमन्यु का उदाहरण सभी जानते हैं.

अगर दंपति की जन्मकुंडली के दोषों से संतान प्राप्त होने में दिक्कत आरही हो तो बाधा दूर करने के लिये संतान गोपाल के सवा लाख जप करने चाहिये. यदि संतान मे सूर्य बाधा कारक बन रहा हो तो हरिवंश पुराण का श्रवण करें, राहु बाधक हो तो क्न्यादान से, केतु बाधक हो तो गोदान से, शनि या अमंगल बाधक बन रहे हों तो रूद्राभिषेक से संतान प्राप्ति में आने वाली बाधायें दूर की जा सकती हैं.

जन्म कुंडली में सुखी दांपत्य जीवन की स्थितियां

विवाह के बाद कुछ समय तो गॄहस्थी की गाडी बढिया चलती रहती है किंतु कुछ समय के बाद ही पति पत्नि में कलह झगडे, अनबन शुरू होकर जीवन नारकीय बन जाता है. इन स्थितियों के लिये भी जन्मकुंडली में मौजूद कुछ योगायोग जिम्मेदार होते हैं. अत: विवाह तय करने के पहले कुंडली मिलान के समय ही इन योगायोगों पर अवश्य ही दॄष्टिपात कर लेना चाहिये.

सातवें भाव में खुद सप्तमेश स्वग्रही हो एवम उसके साथ किसी पाप ग्रह की युति अथवा दॄष्टि भी नही होनी चाहिये. लेकिन स्वग्रही सप्तमेश पर शनि मंगल या राहु में से किन्ही भी दो ग्रहों की संपूर्ण दॄष्टि संबंध या युति है तो इस स्थिति में दापंत्य सुख अति अल्प हो जायेगा. इस स्थिति के कारण सप्तम भाव एवम सप्तमेश दोनों ही पाप प्रभाव में आकर कमजोर हो जायेंगे.

यदि शुक्र के साथ लग्नेश, चतुर्थेश, नवमेश, दशमेश अथवा पंचमेश की युति हो तो दांपत्य सुख यानि यौन सुख में वॄद्धि होती है वहीं षष्ठेश, अष्टमेश अथवा द्वादशेश के साथ संबंध होने पर दांपत्य सुख में न्यूनता आती है.

यदि सप्तम अधिपति पर शुभ ग्रहों की दॄष्टि हो, सप्तमाधिपति से केंद्र में शुक्र संबंध बना रहा हो, चंद्र एवम शुक्र पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो दांपत्य जीवन अत्यंत सुखी और प्रेम पूर्ण होता है.

लग्नेश सप्तम भाव में विराजित हो और उस पर चतुर्थेश की शुभ दॄष्टि हो, एवम अन्य शुभ ग्रह भी सप्तम भाव में हों तो ऐसे जातक को अत्यंत सुंदर सुशील और गुणवान पत्नि मिलती है जिसके साथ उसका आजीवन सुंदर और सुखद दांपत्य जीवन व्यतीत होता है. (यह योग कन्या लग्न में घटित नही होगा)

सप्तमेश की केंद्र त्रिकोण में या एकादश भाव में स्थित हो तो ऐसे जोडों में परस्पर अत्यंत स्नेह रहता है. सप्तमेश एवम शुक्र दोनों उच्च राशि में, स्वराशि में हों और उन पर पाप प्रभाव ना हो तो दांपत्य जीवन अत्यंत सुखद होता है.

सप्तमेश बलवान होकर लग्नस्थ या सप्तमस्थ हो एवम शुक्र और चतुर्थेश भी साथ हों तो पति पत्नि अत्यंत प्रेम पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं.

सप्तमेश एवम शुक्र एक दूसरे की राशि में केंद्र या त्रिकोण में बैठे हों और उन पर द्वितीयेश और चतुर्थेश का दॄष्टि संबंध हो तो निहायत ही सुखद दांपत्य सुख प्राप्त होता है.

पुरूष की कुंडली में स्त्री सुख का कारक शुक्र होता है उसी तरह स्त्री की कुंडली में पति सुख का कारक ग्रह वॄहस्पति होता है. स्त्री की कुंडली में बलवान सप्तमेश होकर वॄहस्पति सप्तम भाव को देख रहा हो तो ऐसी स्त्री को अत्यंत उत्तम पति सुख प्राप्त होता है.

जिस स्त्री के द्वितीय, सप्तम, द्वादश भावों के अधिपति केंद्र या त्रिकोण में होकर वॄहस्पति से देखे जाते हों, सप्तमेश से द्वितीय, षष्ठ और एकादश स्थानों में सौम्य ग्रह बैठे हों, ऐसी स्त्री अत्यंत सुखी और पुत्रवान होकर सुखोपभोग करने वाली होती है.

पुरूष का सप्तमेश जिस राशि में बैठा हो वही राशि स्त्री की हो तो पति पत्नि में बहुत गहरा प्रेम रहता है.

वर कन्या का एक ही गण हो तथा वर्ग मैत्री भी हो तो उनमें असीम प्रम होता है. दोनों की एक ही राशि हो या राशि स्वामियों में मित्रता हो तो भी जीवन में प्रेम बना रहता है.

अगर वर या कन्या के सप्तम भाव में मंगल और शुक्र बैठे हों उनमे कामवासना का आवेग ज्यादा होगा अत: ऐसे वर कन्या के लिये ऐसे ही ग्रह स्थिति वाले जीवन साथी का चुनाव करना चाहिये. अगर ऐसे ग्रहों से युक्त वर कन्या का विवाह ऐसे जातक से कर दिया जाये जिसके सप्तम भाव में बुध या गुरू बैठे हों , जो कि काम वासना को कम करने वाले ग्रह हैं, तो इस स्थिति में इस युगल यौन विषय्क असमानता आ जाती है जिसके फ़लस्वरूप इनके जीवन में झगडे झंझट शुरू होकर दांपत्य सुख खत्म सा हो जाता है.

दांपत्य सुख का संबंध पति पत्नि दोनों से होता है. एक कुंडली में दंपत्य सुख हो और दूसरे की में नही हो तो उस अवस्था में भी दांपत्य सुख नही मिल पाता, अत: सगाई पूर्व माता पिता को निम्न स्थितियों पर ध्यान देते हुये किसी सुयोग्य और विद्वान ज्योतिषी से दोनों की जन्म कुंडलियों में स्वास्थ्य, आयु, चरित्र, स्वभाव, आर्थिक स्थिति, संतान पक्ष इत्यादि का समुचित अध्ययन करवा लेना चाहिये सिर्फ़ गुण मिलान से कुछ नही होता.

वर वधु की आयु का अधिक अंतर भी नही होना चाहिये, दोनों का शारीरिक ढांचा यानि लंबाई उंचाई, मोटाई, सुंदरता में भी साम्य देख लेना चाहिये. अक्सर कई धनी माता पिता अपनी काली कलूटी कन्या का विवाह धन का लालच देकर किसी सुंदर और गौरवर्ण लडके से कर देते हैं जो बाद में जाकर कलह का कारण बनता है. इसी तरह कई धनी पालक अपने काले कलूटे और कम पढे लिखे पुत्र के लिये सुंदर और गौरवर्ण पढी लिखी युवती से कर देते हैं और युवती के मां बाप भी यह सोचकर कि लडकी उंचे और धनी परिवार में जा रही है, उसकी शादी कर देते हैं, इस तरह के जोडे भी अक्सर दांपत्य सुख में कमी का शिकार होते हैं.

कुल मिलाकर शिक्षा, खानदान, खान पान परंपरा इत्यादि की साम्यता देखकर ही निर्णय लेना चाहिये. इस सबके अलावा वर कन्या के जन्म लग्न एवन जन्म राशि के तत्वों पर भी दॄष्टिपात कर लेना चाहिये. दोनों के लग्न, राशि के एक ही ततव हों और परस्पर मित्र भाव वाले हों तो भी पति पत्नि का जीवन प्रेम मय बना रहता है. इस मामले में विपरीत तत्वों का होना पति पत्नि में शत्रुता पैदा करता है यानि पति अग्नि तत्व का हो और पत्नि जल तत्व की हो तो गॄहस्थी की गाडी बहुत कष्ट दायक हो जाती है. कुल मिलाकर एक ही तत्व वाले जोडे अधिक सुखद दांपत्य जीवन जीते हैं..

प्रेम विवाह की सफ़लता या असफ़लता के लिये जिम्मेदार स्थितियां

जैसे--जैसे बच्चों की आयु बढने लगती है, त्यों-त्यों माता-पिता को उनकी विवाह-शादी की चिन्ता सताने लगती है. भारतीय समाज में अधिकाशंत: निर्धारित शादियां करने की ही परम्परा रही है. हालाँकि, पुरातन काल में विवाह की कईं प्रकार की परंपरायें प्रचलन में थी. इच्छित विवाह एवं स्वयंबर तथा गंधर्व विवाह भी हुआ करते थे. कुछ राजा लोग अपनी पुत्री की शादी के लिये किसी बात का प्रण ले लेते थे और उस प्रण को पूरा करने वाले का वरण कन्या को चाहे अनचाहे करना ही पडता था. भगवान राम एवं सीता जी का विवाह भी इसी परंपरा मे हुआ था.

आज के समय में जब लडका और लडकी दोनों ही पढे लिखें हैं और समान रूप से कामकाजी हो गये हैं. घर, शहर और विदेश में अकेले रह कर काम कर रहे हैं तभी से प्रेम विवाह का चलन बढा है. लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि आज के समय में पालक प्रेम विवाह को अच्छी नजर से नही देखते हैं और यथा संभव प्रेम विवाह में रोडे ही अटकाने की कोशीश करते हैं. लेकिन अगर जन्मकुंडली में प्रेम विवाह के योग बने हुये हैं तो वो रोकने की लाख कोशीश करले उसको रोक नही पाते. इसी वजह से कई जोडे घर से भागकर मंदिर में शादी कर लेते हैं.

यहां एक बात कहना उचित होगा कि अगर जन्मकुंडली में प्रेम विवाह का योग परिलक्षित हो रहा हो तो पालको को चाहिये कि शांत दिमाग से काम लेकर किसी योग्य ज्योतिषी से बच्चों की कुंडली का अध्ययन अवश्य करवा लेना चाहिये जिससे यह पता लगाया जा सके कि ये प्रेम संबंध सफ़ल होकर सुख शांति बनी रहेगी या ये प्रेम संबंध सिर्फ़ अनैतिक संबंधों तक ही सीमित होकर कलह का कारण बनेंगे.

प्रेम संबंध और प्रेम विवाह के लिये लडका लडकी की कुंडली के पंचम भाव का भलिभांति अध्ययन कर लेना चाहिये. प्रेम का संबंध पंचम भाव से होकर जीवन साथी का भाव सप्तम होता है. विवाह का कारक शुक्र होकर भोग विलास का दायित्व भी शुक्र का है. इन भावों के अध्ययन से ही स्पष्ट होगा कि ये प्रेमी जोदा सुखपूर्वक जीवन यापन करेगा या एक दुखी जीवन का निर्माण करेगा.

कुंडली के पंचम भाव से स्वाभाविक प्रेम और संतान के बारे में जाना जाता है. सप्तम भाव से इसके तादाम्य के अनुसार ही प्रेम विवाह की सफ़लता असफ़लता का निर्धारण किया जाता है. पंचमेश और सप्तमेश का कुंडली में एक दूसरे से त्रिकोण या केंद्र में होना अति आवश्यक है. यदि ये ग्रह लग्न, नवम भाव, दशम भाव या एकादश भाव में युति करें अथवा केंद्र त्रिकोण में हों तो प्रेम विवाह की प्रबल संभावना बनती है. पंचमेश सप्तमेश और नवमेश और इन भावों की स्थिति मजबूत हो तो एक सफ़ल और सुखद वैवाहिक जीवन व्यतीत होता है. इसके विपरीत पंचमेश, नवमेश और सप्तमेश का संअबंध किसी भी तरह कुंडली के छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो तो प्रेम विवाह में विफ़लता एवम निराशा ही उठानी पडती है.

निम्न लिखित योग कुंडली में अगर विद्यमान हों तो प्रेम विवाह की संभावना प्रबल होती है:----

१. युति अथवा दॄष्टि द्वारा पंचम, नवम और सप्तम भावो ए भावेशों का संबध बन रहा हो.

२. सांतवे भाव में शनि और केतु की उपस्थिति भी प्रेम विवाह में अति सहायक होती है.

३. जब नवम और सप्तम भाव और उनके अधिपति और गुरू अशुभ भावों से घिरे हों.

४. सप्तमेश एवम शुक्र यदि शनि या राहु से युति करें या उनसे दॄष्ट हों तो भी प्रेम विवाह हो सकता है.

जब द्वादश भाव चर राशि का नही हो एवम उसका संबंध लग्नेश और सप्तमेश के साथ हो जातक घर की परंपाराओं के विपरीत अंतर्जातीय विवाह करता है.

५. लग्न और सप्तम के अधिपति आटवें या पांचवे भाव मे हो अथवा लग्नेश पंचमेश सातवें हों, पंचमेश एवम सप्तमेश लग्न में हों तो मर्यादाओं को लांघते हुये जातक बेधडक प्रेम विवाह करता है.

६. लग्न में चंद्र हो या कर्क राशि हो, अथवा मंगल हो या उसकी राशि हो तो निश्चित तौर पर अंतर्जातीय प्रेम विवाह होता है.
७. पंचमेश, लग्नेश और सप्तमेश का संबंध द्वादश भाव से बने तब भी प्रेम विवाह होता है.

जन्मकुंडली का विस्तॄत अध्ययन करके प्रेम विवाह की सफ़लता या असफ़लता का निश्चित तौर पर पता लगाया जा सकता है.

श्राद्ध करना धर्म है !!!

हमारे धर्म शास्त्रों में श्राद्ध के सम्बन्ध में इतने विस्तार से विचार किया गया है कि इसके सामने अन्य समस्त धार्मिक कार्य गौण लगने लगते हैं. श्राद्ध के छोटे से छोटे कार्य के सम्बन्ध में इतनी सूक्ष्म मीमाँसा और समीक्षा की गई है कि विचारशील व्यक्ति तो सहज में ही चमत्कृत हो उठते हैं. वास्तव में मृत माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक किया गया दान ही "श्राद्ध" है. हम यूँ भी कह सकते हैं कि श्रद्धापूर्वक किए जाने के कारण ही इसे श्राद्ध कहा गया है. श्राद्ध से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं पर आईये डालते हैं एक नजर धार्मिक दृष्टिकोण से............!!!
"श्राद्धकल्पता" अनुसार पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा एवं आस्तिकतापूर्वक पदार्थ-त्याग का दूसरा नाम ही श्राद्ध है.
पित्रयुद्देश्येन श्रद्दया तयक्तस्य द्रव्यस्य
ब्राह्मणैर्यत्सीकरणं तच्छ्राद्धम !!
"श्राद्धविवेक" का कहना है कि वेदोक्त पात्रालम्भनपूर्वक पित्रादिकों के उद्देश्य से द्रव्यत्यागात्मक कर्म ही श्राद्ध है----श्राद्धं नाम वेदबोधित पात्रालम्भनपूर्वक प्रमीत पित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष: !
" गौडीय श्राद्धप्रकाश" अनुसार भी देश-काल-पात्र पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक हविष्याण,तिल,कुशा तथा जल आदि का त्याग-दान श्राद्ध है---देशकालपात्रेषु पित्रयुद्देश्येन हविस्तिलदर्भमन्त्र श्रद्धादिभिर्दानं श्राद्दम !
श्राद्ध न करने से हानि:--
जो लोग यह समझकर कि पितर हैं ही कहाँ---श्राद्ध नही करता, पितर-लोग लाचार होकर उसका रक्तपान करते हैं. जो उचित तिथि पर जल से अथवा भोजा इत्यादि से भी श्राद्ध नहीं करता,पितर उसे श्राप देकर अपने लोक को लौट जाते हैं. मार्कण्डेयपुराण का कहना है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता,वहाँ वीर,निरोगी,शतायु पुरूष नहीं जन्म लेते. जहाँ श्राद्ध नहीं होता, वहाँ वास्तविक कल्याण नहीं होता.
श्राद्ध में महत्व के साथ पदार्थ :--
गंगाजल, दूध,शहद, कुशा,सूती कपडा, दौहित्र और तिल--ये कुल सात श्राद्ध में बहुत ही महत्व के प्रयोजनीय हैं.
इनके अतिरिक्त श्राद्धकर्म में तुलसी की भी विशाल महिमा कही गई है. तुलसी की गंध से पितृगण प्रसन्न होकर, पूर्णत: तृप्ति को प्राप्त कर इस लोक से विष्णुलोक की ओर गमन कर जाते हैं.
श्राद्धकर्ता के लिए वर्ज्य सात वस्तुएं:--
पान खाना, उपवास, स्त्रीसंभोग,औषध,दातुन करना और पराये अन्न का सेवन करना---ये सात वस्तुएं श्राद्धकर्ता के लिए वर्जित हैं. यदि भूल से इनमें से किसी वस्तु का प्रयोग हो भी जाए तो प्रायश्चित कर 108 बार गायत्री मन्त्र का जाप अवश्य कर लेना चाहिए.
इसके अतिरिक्त श्राद्ध में ताँबें के बर्तनों का बहुत महत्व है. लोहे/स्टील के बर्तनों का श्राद्ध में कदापि उपयोग नहीं करना चाहिए. रसोई बनाते अर्थात खाना बनाने में भी इनका उपयोग नहीं किया जाता. केवल काटने या धोने इत्यादि के लिए इन्हे प्रयोग में लाया जा सकता है.
श्राद्ध में प्रशस्त अन्न:- 
फलादि, काले उडद,तिल,जौं,श्यामक चावल, गेहूँ, दूध के बने सभी पदार्थ, शहद, चीनी,कपूर, आँवला, अंगूर, कटहल, गुड, नारियल, नींबूं, अखरोट इत्यादि पदार्थ प्रशस्त कहे गये हैं. अत: इनका अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए.
श्राद्ध में निषिद्ध अन्न:-
चना, मसूर, सत्तू, मूली, जीरा, कचनार, काला नमक, लौकी, बडी सरसों, सरसों का शाक, खीरा, और कोई भी बासी, गला-सडा,कच्चा, अपवित्र फल या अन्न निषिद्ध है. 
श्राद्ध में पाठय प्रसंग :-
श्राद्धकाल में पुरूषसूक्त,श्रीसूक्त,सौपर्णाख्यान, श्रीभागवतगीता, ऎन्द्रसूक्त,सोमसूक्त,सप्तार्चिस्तव,मधुमती अथवा अन्य किसी पुराणादि का पठन-श्रवण अवश्य करना चाहिए.

अन्त में एक बात, कि श्राद्ध में भोजन के समय मौन रहना चाहिए. माँगने या प्रतिषेद करने का इशारा हाथ से करना चाहिए. खाना खाते हुए पंडित जी से यह नहीं पूछना चाहिए कि "खाना कैसा है ?", अन्यथा पितर निराश होकर लौट जाते हैं.

मीन लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 330 डिग्री से 360 डिग्री तक के भाग को मीन राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आसमान के पूर्वी क्षितिज में उदित होता हुआ दिखाई देता है , उस जातक का लग्‍न मीन माना जाता है. मीन लग्‍न में मन का स्‍वामी चंद्रमा पंचम भाव का स्‍वामी होकर माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


सूर्य षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी , वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल द्वितीय और नवम भाव का स्‍वामी होता है द्वितीय भाव का अधिपति होने के कारण जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्‍व करता है जबकि नवमेश होने के कारण यह धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शुक्र तृतीय और अष्‍टम भाव का स्‍वामी होता है. तॄतीयेश होने के कारण यह जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि संदर्भों का प्रतिनिधि बनता है जबकि अष्टमेश होने के कारण यह व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख इत्यादि का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बुध चतुर्थ भाव का स्‍वामी होकर जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि बनता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बृहस्‍पति दशम भाव का स्‍वामी होकर जातक के राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बॄहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि एकादश और द्वादश भाव का स्‍वामी होता है. एकादश भाव का स्वामी होने के कारण यह जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि बनता है जबकि द्वादशेश होने के नाते यह निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण.इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु को मीन लग्न में सप्तमेश होने का दायित्व मिलता है जिसकी वजह से यह जातक लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होत है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु को मीन लग्न में लग्नेश होने का दायित्व मिलता है इस वजह से यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व को प्रतिनिधित्व करता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

कुंभ लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 300 डिग्री से 330 डिग्री तक के भाग को कुंभ राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज पर उदित होता हुआ दिखाई देता है, उस जातक का लग्‍न कुंभ माना जाता है. कुंभ लग्‍न की कुंडली में मन का स्‍वामी चंद्र षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होता है. यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

समस्त विश्व को प्रकाशित करने वाला सूर्य सप्‍तम भाव का स्‍वामी होकर जातक के लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल तृतीय और दशम भाव का स्‍वामी होता है. तॄतीयेश होने के कारण नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है जबकि दशमेश होने के कारण यह जातक के राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शुक्र चतुर्थ और नवम भाव का स्‍वामी होता है. चतुर्थेश होने के कारण यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का कारक होता है. एवम नवमेश होने के कारण धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. कुंभ लग्न में एक केंद्र और एक त्रिकोण का स्वामी होकर शुक्र अतीव शुभ और राजयोग कारक ग्रह बन जाता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में अतयंत शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से न्य़ून शुभ फ़लों के साथ अधिक अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बुध पंचम भाव का स्‍वामी होकर जातक के बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बृहस्‍पति एकादश भाव का स्‍वामी होकर जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बृहस्‍पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि प्रथम और द्वादश भाव का स्‍वामी होता है. लग्नेश होने के नाते यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व इत्यादि का प्रतिनिधि होता है जबकि द्वादशेश होने के कारण यह जातक के निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु अष्टम भाव का स्वामी होकर यहां अष्टमेश होता है जिसके कारण उसे जातक के व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व मिलता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु द्वितीय भाव का स्वामी होकर यहां जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मकर लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 270 डिग्री से 300 डिग्री तक के भाग को मकर राशि के रूप में जाना जाता है. जिस जताक के जन्‍म के समय यह भाग आसमान के पूर्वी क्षितिज में उदित होता दिखाई देता है, उस जातक का लग्‍न मकर माना जाता है. मकर लग्‍न की कुंडली में में मन का स्‍वामी चंद्रमा सप्‍तम भाव का स्‍वामी होता है. यह जातक लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

सूर्य अष्‍टम भाव का स्‍वामी होता है और यह जातक व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल चतुर्थ और एकादश भाव का स्‍वामी होता है. चतुर्ठेश होने के नाते माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह संबंधी विषयों का प्रतिनिधित्व करता है जबकि एकादशेश होने के नाते लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शुक्र पंचम और दशम भाव का स्‍वामी होता है. पंचमेश होने के कारण यह जातक के बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का और दशमेश होने के कारण राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयों का अधिपति होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं. एक केंद्र और त्रिकोण का स्वामित्व मिलने शुक्र मकर लग्न में अति योगकारी होता है.

मकर लग्‍न की कुंडली के अनुसार बुध षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बृहस्‍पति द्वादश भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है.
जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बृहस्‍पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि प्रथम और द्वितीय भाव का स्‍वामी होता है. यह लग्नेश होने के नाते जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि एवम द्वितीयेश होने के कारण कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मकर लग्न में राहु नवम भाव का अधिपति होकर जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि बनकर अति शुभ हो जाता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में विशेष शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु यहां तॄतीयेश होकर जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

धनु लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 240 डिग्री से 270 डिग्री तक के भाग को धनु राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित होता दिखाई देता है, उस जातक का लग्‍न धनु माना जाता है. धनु लग्‍न की कुंडली में मन का स्‍वामी चंद्र अष्‍टम भाव का अधिपति होता है. यह जातक व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


सूर्य नवम् भाव का स्‍वामी होकर धनु लग्न के जातक के भाग्‍य और धर्म का प्रतिनिधित्‍व करता है. यह जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल पंचम और द्वादश भाव का स्‍वामी होता है. पंचमेश होने कारण यह बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि संदर्भों का प्रतिनिधित्‍व करता है एवम द्वादशेश होने के नाते निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


शुक्र षष्‍ठ और एकादश भाव का स्‍वामी होता है. षष्ठेश होने के नाते यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. एवम द्वादशेश होने के कारण लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


बुध सप्‍तम भाव का स्वामी होकर जातक के लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रनिधित्व करता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


बृहस्‍पति प्रथम भाव का स्‍वामी होकर लग्नेश होता है. यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बृहस्‍पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


शनि द्वितीय और तृतीय भाव का स्‍वामी होता है. द्वितीयेश होने के कारण यह जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब विषयक मामलों का प्रतिनिधि होता है वहीं तॄतीयेश होने के कारण यह नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों को प्रतिनिधित्व देता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु दशम भाव का स्वामी होकर धनु लग्न में जातक के राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयक प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु चतुर्थ भाव का स्वामी होकर जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

वृश्चिक लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 210 डिग्री से 240 डिग्री तक के भाग को वृश्चिक राशि के रूप में चिन्हित किया गया है. जिस जातक के जन्‍म के समय यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित होता दिखाई देता है, उस जातक का लग्‍न वृश्चिक माना जाता है. वृश्चिक लग्‍न की कुंडली में मन का स्‍वामी चंद्र नवम् भाव का स्‍वामी होकर जातक धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

सर्वत्र प्रकाश बिखरने वाला सूर्य दशम भाव का स्‍वामी होता है. यह जातक के राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल प्रथम और षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होता है. लग्नेश होने के कारण रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है एवम षष्ठेश होने के कारण यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शुक्र सप्‍तम और द्वादश भाव का स्‍वामी होता है. सप्तमेश होने के नाते लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है एवम द्वादशेश होने के कारण यह निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


बुध अष्‍टम भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बृहस्‍पति द्वितीय भाव का स्‍वामी होकर यह जातक कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब इत्यादि का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बॄहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि तृतीय और चतुर्थ भाव का स्‍वामी होता है. तॄतीयेश होने के नाते यह जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रनिधि होता है जबकि चतुर्थेश होने के कारण यह माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु एकादश भाव का अधिपति होकर जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु पंचम भाव का स्वामी होकर जातक के बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

तुला लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 180 डिग्री से 210 डिग्री तक के भाग को तुला राशि के रूप में जाना जाता है. जिस जातक का जन्‍म के समय यह भाग आसमान के पूर्वी क्षितिज में उदित होता है , उस जातक का लग्‍न तुला माना जाता है. तुला लग्‍न की कुंडली में मन का स्‍वामी चंद्र दशम भाव का स्‍वामी होकर यह जातक राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

सूर्य एकादश भाव का स्‍वामी होता है और यह जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल द्वितीय और सप्‍तम भाव का स्‍वामी होता है. द्वितीयेश होने के नाते यह जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है जबकि सप्तमेश होने के नाते लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शुक्र प्रथम और अष्‍टम भाव का स्‍वामी है. लग्नेश होने के नाते यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है जबकि अष्टमेश होने के कारण यह व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बुध नवम भाव का स्‍वामी होकर नवमेश होकर यह जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल, ज्योतिषी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बृहस्‍पति तृतीय भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बॄहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि चतुर्थ और पंचम भाव का स्‍वामी होकर तुला लग्न की कुंडली में अत्यंत शुभ और योगकारी ग्रह हो जाता है. चतुर्थेश होने के कारण यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है एवम पंचमेश होने के कारण यह बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु द्वादश भाव का स्वामी होकर जातक के निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


केतु छठे भाव का स्वामी होकर षष्ठेश होता है. यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

कन्या लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 150 डिग्री से 180 डिग्री तक के भाग को कन्‍या राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज पर उदित होता दिखाई देता है उस जातक का लग्‍न कन्‍या माना जाता है. कन्‍या लग्‍न की कुंडली के अनुसार मन का स्‍वामी चंद्र एकादश भाव का स्‍वामी होता है. यह जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी जैसे विषयों का प्रतिनिधित्व करता है . जातक की जन्‍मकुंडली या दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

सूर्य द्वादश भाव का स्‍वामी होकर जातक के निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल तॄतीय एवम अष्टम भाव का स्‍वामी होता है. तॄतीयेश के नाते नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता जैसे विषयों का प्रनिधि होता है जबकि अष्टमेश होने के कारण व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


शुक्र द्वितीय और नवम् भाव का स्‍वामी होता है. द्वितीयेश होने के कारण कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब एवम नवमेश होने के कारण धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


बुध प्रथम (लग्नेश) और दशम भाव का स्‍वामी होता है. लग्नेश होने के नाते रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है जबकि दशमेश होने के कारण राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


बृहस्‍पति चतुर्थ भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में बृहस्‍पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि पंचम और षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होता है. पंचमेश होने के नाते बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का एवम षष्ठेश होने के कारण यह जातक के लिये रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु प्रथम भाव का स्वामी होकर लग्नेश होता है. यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु सप्त भाव का स्वामी होकर जातक के लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड जैसे विषयों का प्रतिनिधि ग्रह होता है. जातक की जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

सिंह लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 120 डिग्री से 150 डिग्री तक के भाग को सिंह राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित होता है , उस बालक का लग्‍न सिंह माना जाता है. सिंह लग्‍न की कुंडली में मन का स्‍वामी चंद्रमा द्वादश भाव का स्‍वामी होता है जो कि जातक के निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

समस्‍त जगत में चमक बिखेरने वाला सूर्य प्रथम भाव का स्‍वामी होकर लग्नेश बनता है. यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल चतुर्थ और नवम भाव का स्‍वामी होकर सिंह लग्न के जातकों के लिये यह अतीव शुभ फ़लदायक ग्रह होता है. चतुर्थेश होने के कारण यह माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है जबकि नवमेश होने के कारण यह जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का दायित्व निभाता है. मंगल बलवान और शुभ प्रभाव वाला हो तो वर्णित विषयों
अत्यंत शुभ और प्रचुर फ़ल मिलते हैं जबकि कमजोर और अशुभ प्रभाव वाला मंगल शुभ फ़ल देने में असमर्थ होता है परंतु अशुभ फ़ल सिंह लग्न मे अति अल्प मात्रा में ही देता है. .

शुक्र तृतीय और दशम भाव का स्‍वामी होता है. तॄतीयेश होने के कारण यह जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है एवम दशमेश होने कारण राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बुध एकादश भाव का स्‍वामी होकर जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


बृहस्‍पति पंचम भाव का स्‍वामी हो कर जातक के बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्‍व करता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में वॄहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि षष्‍ठ और सप्‍तम भाव का स्‍वामी होता है. षष्ठेश होने के कारण यह रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन जैसे विषयों एवम सप्तमेश होने के कारण यह लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु द्वितीय भाव का अधिपति होकर जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु अष्टम भाव का अधिपति होकर जातक के व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

कर्क लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 90 डिग्री से 120 डिग्री तक के भाग को कर्क राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित हुआ दिखाई देता है, उस जातक का लग्‍न कर्क माना जाता है. कर्क लग्‍न की कुंडली में मन का कारक ग्रह चंद्रमा प्रथम भाव का स्‍वामी (लग्नेश) होता है और यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व. इत्यादि का प्रतिनिधित्‍व करता है. इसलिए कर्क लग्‍न के जातकों के मन को पूर्ण तौर पर संतुष्‍ट करने वाले ये सभी कार्य ही होते है. जन्‍मकुंडली एवम दशाकाल में चंद्र के बलवान एवम शुभ रहने पर उपरोक्त वर्णित संदर्भों में जातक को शुभ फ़ल मिलकर कर्क लग्‍न के जातक का मन प्रसन्न रहता है. यदि जन्‍मकुंडली या दशाकाल में चंद्र के कमजोर अथवा पाप प्रभाव में रहने पर उपरोक्त संदर्भों में अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं और जातक को मानसिक क्लेश की प्राप्ति होती है.

समस्‍त जगत में चमक बिखेरने वाला सूर्य द्वितीय भाव का स्‍वामी होता है और यह जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब, का प्रतिनिधित्‍व करता है. इसलिए अपने नाम यश को फैलाने के लिए कर्क लग्‍न के जातक धन की स्थिति को मजबूत बनाने रखने पर अत्यधिक जोर देते हैं। अपने नाम यश को फैलाने के लिए इन्‍हें धनार्जन एक मुख्य उपाय दिखाई देता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मंगल पंचम और दशम भाव का अधिपति होता है. पंचमेश के नाते बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि एवम दशमेश के नाते राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. कर्क लग्न में मंगल सबसे शुभ अत्यंत राज योगकारी ग्रह होता है. मंगल के बलवान होने एवम शुभ प्रभाव गत होने से कर्क लग्न वाले जातकों को अत्यंत ही शुभ और श्रेष्ठ फ़ल उपरोक्त विषयों में प्राप्त होते हैं. अगर मंगल कमजोर, अशुभ प्रभाव में हो तो वांछित शुभ फ़लों में अत्यंत कमजोर उपलब्धि हो पाती है. अनुभव जन्य बात यह है कि एक केंद्र और एक त्रिकोण का अधिपति होने मंगल इस लग्न में अति शुभ हो जाता है एवम मंगल कितना ही कमजोर हो कर्क लग्न में अशुभ फ़ल बहुत कम ही दे पाता है.

शुक्र चतुर्थ और एकादश भाव का स्‍वामी है और चतुर्थेश होने के नाते यह माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का एवम एकादशेश होने के कारण यह लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बुध द्वादश भाव का स्‍वामी होता है इस वजह से यह जातक की निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण का प्रतिनिधि होता है.
जन्‍मकुंडली या दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

बृहस्‍पति कर्क लग्न में षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होकर षष्ठेष बनता है जो कि जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में बृहस्‍पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.


शनि यहां सप्‍तम और अष्‍टम भाव का स्‍वामी होता है. सप्तमेष होने के कारण यह लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि एवम अष्टमेश होने के कारण व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु को कर्क लग्न में तॄतीयेश का दायित्व मिलता है जिस नाते यह कर्क लग्न के जातकों के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

केतु को कर्क लग्न में नवमेष होने का दायित्व मिला हुआ है जिस कारण यह कर्क लग्न के जातकों के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

हस्त रेखाओं द्वारा रोग की पहचान और उपाय

समस्त रोगों का मूल पेट है। जब तक पेट नियंत्रण में रहता है, स्वास्थ्य ठीक रहता है। ज्योतिषीय दृष्टि से हस्तरेखाओं के माध्यम से भी पेटजनित रोग और पेट की शिकायतों के बारे में जाना जा सकता है। हथेली पर हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा और नाखूनों के अध्ययन के साथ ही मंगल और राहू किस स्थिति में हैं, यह देखना बहुत जरूरी है।

जिन व्यक्तियों का मंगल अच्छा नहीं होता है, उनमें क्रोध और आवेश की अधिकता रहती है। ऐसे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर भी उबल पड़ते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा समझाने का प्रयास भी ऐसे व्यक्तियों के क्रोध के आगे बेकार हो जाता है। क्रोध और आवेश के कारण ऐसे लोगों का खून एकदम गर्म हो जाता है। लहू की गति (रक्तचाप) के अनुसार क्रोध का प्रभाव भी घटता-बढ़ता रहता है। राहू के कारण जातक अपने आर्थिक वादे पूर्ण नहीं कर पाता है। इस कारण भी वह तनाव और मानसिक संत्रास का शिकार हो जाता है।

हथेली पर हृदय रेखा टूट रही हो या फिर चेननुमा हो, नाखूनों पर खड़ी रेखाएँ बन गई हों तो ऐसे व्यक्ति को हृदय संबंधी शिकायतें, रक्त शोधन में अथवा रक्त संचार में व्यवधान पैदा होता है। यदि जातक का चंद्र कमजोर हो तो उसे शीतकारी पदार्थ जैसे दही, मट्ठा, छाछ, मिठाई और शीतल पेयों से दूर रहना चाहिए।

इसी तरह मंगल अच्छा न हो तो मिर्च-मसाले वाली खुराक नहीं लेनी चाहिए। तली हुई चीजें जैसे सेंव, चिवड़ा, पापड़, भजिए, पराठे इत्यादि से भी परहेज रखना चाहिए। ऐसे जातक को चाहिए कि वह सुबह-शाम दूध पीएँ, देर रात्रि तक जागरण न करें और सुबह-शाम के भोजन का समय निर्धारित कर ले। सुबह-शाम केले का सेवन भी लाभप्रद होता है।

पेट की खराबी से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है और फिर इसी वजह से रक्तविकार पैदा होते हैं, जो आगे चलकर कैंसर का रूप तक अख्तियार कर सकते हैं। यह मत विश्व प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री डॉ. आउंट लुईस का है। जिस व्यक्ति के हाथ का आकार व्यावहारिक हो और साथ ही व्यावहारिक चिह्नों वाला हो तो ऐसा जातक अपने जीवन में काफी नियमित रहता है।

ऐसा जातक वृद्धावस्था में भी स्वस्थ रहता है। इसी तरह विशिष्ट बनावट के हाथ या कोणीय आकार के हाथ, जिसमें चंद्र और मंगल पर शुक्र का अधिपत्य हो तो ऐसे लोग स्वादिष्ट भोजन के शौकीन होते हैं। शुक्र प्रधान होने के कारण भोजन का समय नियमित नहीं रहता है। ऐसे में उदर विकार स्वाभाविक ही है। इस पर यदि हृदय रेखा मस्तिष्क रेखा और मंगल-राहू अच्छे न हों तो रक्तजनित रोगों की आशंका बढ़ जाती है।

हस्तरेखा देखकर कैंसर की पूर्व चेतावनी दी जा सकती है और इस जानलेवा बीमारी के संकेत चिन्ह हथेली पर देखे जा सकते हैं। मस्तिष्क रेखा पर द्वीप समूह या पूरी मस्तिष्क रेखा पर बारीक-बारीक लाइनें हो तो ऐसे जातक को कैंसर की पूरी आशंका रहती है। ऐसी स्थिति में यदि मेडिकल टेस्ट करा लिया जाए और उसमें कोई लक्षण न मिलें, तब भी जातक की जीवनशैली में आवश्यक फेरबदल कर उसे भविष्य में कैंसर के आक्रमण से बचाया जा सकता है।

मिथुन लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 60 डिग्री से 90 डिग्री तक के भाग को मिथुन राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय पर यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित होता हुआ दिखाई देता है , उस जातक का लग्‍न मिथुन माना जाता है. मिथुन लग्‍न की कुंडली में मन का स्‍वामी चंद्र द्वितीय यानि धन भाव का स्‍वामी होता है. द्वितियेश होकर यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह जैसे संदर्भों का प्रतिनिधि होता है. मिथुन लग्‍न के जातकों के मन को पूर्ण तौर पर संतुष्‍ट करने वाले ये सारे संदर्भ ही होते है, यदि जन्मकुंडली या दशाकाल में चंद्र बलवान और शुभ हो तो जातक को इन संदर्भों के द्वारा संपूर्ण संतुष्टि मिलती है. पाप प्रभाव गत या कमजोर चंद्र के होने से वर्णित विषयों में न्यूनता एवम असंतुष्टि प्राप्त होती है.

समस्‍त जगत में प्रकाश बिखेरने वाला सूर्य तृतीय भाव का अधिपति होता है नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्‍व करता है. अपनी यश पताका फ़हराने के लिये मिथुन लग्‍न के जातक उपरोक्त संदर्भों के प्रचार प्रसार एवम मजबूत बनाने में प्रयास रत रहते हैं. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के बलवान और शुभ प्रभाव में रहने पर इन्हें इन विषयों का शुभ फ़ल प्राप्त होता है जबकि कमजोर एवम पाप प्रभाव गत सूर्य के कमजोर रहने पर उपरोक्त संदर्भों में इन्हें हानि उठानी पडती है.

मंगल षष्‍ठ और एकादश भाव का स्‍वामी होता है. षष्ठेश होने के नाते यह रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी और एकादशेश होने के नाते यह लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी जैसे संदर्भों का स्वामी होता है. मंगल का बलवान और शुभ प्रभावगत होना उपरोक्त विषयों में मिथुन लग्न के जातकों को शुभ फ़लदायक होता है एवम निर्बल एवम पाप प्रभावगत मंगल अशुभ फ़लदायी होता है.

शुक्र पंचम और द्वादश भाव का स्‍वामी होता है पंचमेष होने के नाते बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार जैसे विषयों और द्वादशेश होने के कारण निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, और व्यर्थ भ्रमण जैसे विषयों का प्रतिनिधि ग्रह होता है. जन्‍मकुंडली या अपने दशाकाल में अगर शुक्र बलवान और शुभ प्रभाव में हो तो अति शुभ फ़ल प्रदान करता है. अगर कमजोर और पाप प्रभावगत हो तो इन फ़लों में अशुभ फ़ल ही मिलते हैं.

मिथुन लग्‍न में बुध प्रथम भाव का स्वामी होकर लग्नेश होता है जो कि रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व जैसे अति महत्व पूर्ण विषयों का प्रतिनिधि होता है. बलवान बुध की स्थिति इन विषयों में अति शुभ फ़ल प्रदान करती है जबकि कमजोर एवम पाप प्रभाव गत बुध होने से इन संदर्भों मे अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

मिथुन लग्‍न में बृहस्‍पति सप्‍तम भाव का स्‍वामी हो कर लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. शुभ और बलवान वृहस्पति इन विषयों में अति शुभ फ़ल देता है जबकि कमजोर और पाप प्रभाव गत गुरू इन फ़लों में अशुभता देता है.

मिथुन लग्‍न में शनि अष्‍टम और नवम भाव का स्‍वामी होता है अष्टमेश होने से यह व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख एवम नवमेष होने से यह धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल जैसे विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. बलवान और शुभ प्रभाव वाला शनि बहुत शुभ फ़ल प्रदान करता है जबकि कमजोर या पाप प्रभाव गत शनि उपरोक्त वर्णित विषयों में अशुभ फ़ल प्रदान करता है.

राहु इस लग्न में चतुर्थ भाव का स्वामी होकर माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह जैसे विषयों का प्रतिनिधि ग्रह होता है. शुभ प्रभाव गत और बलवान राहु इन विषयों में अति शुभ फ़ल प्रदान करता है जबकि कमजोर एवम पाप प्रभाव वाला राहु अशुभ फ़लों का दाता होता है.

केतु को मिथुन लग्न में दशम भाव का स्वामित्व मिलता है और दशमेश होने की वजह से यह राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. अगर यह केतु बलवान हो कर शुभ प्रभाव गत हो तो इन विषयों के अति शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

स्वपनों का संसार


शायद ही कोई इंसान होगा जिसने कभी सपने ना देखें हों? अक्सर हम सपने देखते हैं पर कई लोग कहते हैं कि उन्हें सपने नही आते. शायद वो सपनों को याद नही रख पाते. सपनों के माध्यम से हमें पृकृति बहुत कुछ कहती है. पर ये अलग बात है कि हम उस संदेश को कितना समझ पाते हैं? हम सपने देखते हैं और जागने के कुछ ही देर बाद भूल भी जाते हैं. अक्सर कई कई दिनों तक हम एक ही सपना देखते हैं और उसका मतलब नही समझ पाते.

आयुर्वेद और होमियोपैथी चिकित्सा में तो सपने के आधार पर रोग की पहचान भी की जाती है यानि सपने भी रोगी के कफ़, पित और वात दोशों के असंतुलन का परिणाम हो सकते हैं पर कुछ सपने निश्चित ही इन दोषों के उपर और अलग होते हैं जो हमसे कुछ कहना चाह्ते हैं.

जैसे ज्योतिष शास्त्र के नौ ग्रहों और बारह राशियों के अधीन हमारा जीवन नियंत्रित रहता है और हम जिस ग्रह की दशा महादशा के अधीन चलते हैं उसी तरह के सपने भी परमात्मा हमें हमारी विपरीत परिस्थितियों से निकलकर जीवन में सफ़लता पाने के संकेत स्वरूप दिखाता है. अब ये अलग बात है कि हम उनको कितना समझ पाते हैं. हमारा तो यह मानना है कि सपने तो वो जगत नियंता हमको दिखाता है जो भविष्य का आईना होते हैं.

सपनों का विश्लेषण अति दुरूह कार्य है. धीरे धीरे सपनों को समझना पडता है, उनको याद रखना पडता है. जैसे ही कोई सपना आये उसको उठते ही कागज पर लिख लिया जाना चाहिये. जब भविष्य में वो घटना घटित हो तब उसकी सत्यता आपको पता चलेगी. हम इस विषय में अलग अलग सपनों का फ़ल समझाने की कोशीश करेंगे जिनसे आप अवश्य फ़ायदा उठा सकेंगें.

अगर कोई स्वपन आपको बार बार दिखाई पड रहा है तो समझ लिजिये कि विधाता आपको उस स्वपन के माध्यम से कुछ विशेष संदेश देना चाह रहा है. यदि आप ऎसे किसी संकेत को समझ पाने में असफ़ल हैं तो स्वपन का पूर्ण विवरण हमें लिख भेजिए. आपकी जन्मकुंडली की दशानुरूप हम आपको उस संकेत को समझने के लिये अवश्य सुझाव देंगें.

विवाह कब होगा ?

वर्तमान युग में पढाई लिखाई और सेटल होने तक शादी नही करने के चलन की वजह से शादी ज्यादा उम्र में होने लगी है. ऐसे में पालको का चिंतित होना स्वाभाविक है. जन्मकुंडली में कुछ योग ऐसे होते हैं जिनके फ़लिते होने के समय में विवाह आसानी से हो जाता है.

इसके लिये सातवां भाव, सप्तमेश व शुक्र से संबन्ध बनाने वाले ग्रहों को देखना चाहिये. जन्म कुण्डली में जो भी ग्रह अशुभ या पापी ग्रह इन ग्रहों से युति या अन्य प्रकार के संबंधों द्वारा इन पर प्रभाव डालता है असल में वही ग्रह विवाह में विलम्ब का कारण बन जाता है.

विवाह के कारक भाव सप्तम, सप्तमेश व शुक्र पर शुभ ग्रहों का असर जितना ज्यादा होगा, उतना ही अच्छा रहता है. एवम अशुभ ग्रहों का प्रभाव ना होना भी विवाह का समय पर संपन्न होने के लिये जरूरी रहता है. क्योकि अशुभ एवम पापी ग्रह जब भी शादी के कारक भावों अथवा कारक ग्रहों को प्रभावित करते है तो विवाह में अनावश्यक देरी होती है. जन्म कुण्डली के अध्ययन पश्चात जब यह तय हो जाये कि शादी की उम्र या वर्ष कौन सा है तब उसके बाद विवाह के कारक ग्रह शुक्र और विवाह के खास (main) ग्रह की दशा अंतर्दशा में विवाह संपन्न होने की संभावनाएं बढ जाती है.


कौन सी दशा- अन्तर्दशाओं में विवाह होगा :-

जिस समय में कुण्डली के योग विवाह की संभावनाएं बना रहे हों, उस समय में जातक की ग्रह दशा में सप्तमेश का संबन्ध शुक्र (Venus) से हो तों इस समयावधि में विवाह संपन्न होता है. एवम जब भी सप्तमेश और द्वितीयेश का ग्रह दशा/अंतर्दशाओं में संबंध बन रहा हो उस समयावधि में भी विवाह होने के प्रबल योग होते है.

ग्रह दशाओं में जब भी सप्तमेश व नवमेश का आपस में योग बन रहा हो और ये दोनों जन्म कुण्डली में पंचमेश से भी संबन्ध बनाते हों तो इस समय में प्रेम विवाह होने की संभावनाएं बलवती हो जाती है.

सातवें भाव में जो ग्रह स्थित होते हैं उनका संबन्ध अगर सप्तमेश या शुक्र से बन रहा हो, उन सभी ग्रहों की दशा - अन्तर्दशा में विवाह होने की प्रबल संभावनाएं होती हैं.

सप्तम भावगत ग्रह, सप्तमेश जब शुभ बलि ग्रह होकर शुभ भाव में विराजित हों तो जातक का विवाह संबन्धित ग्रह की दशा की शुरूआत की अवधि में होने की प्रबल संभावना होती.

शुक्र, सप्तम भावगत ग्रह या सप्तमेश जब बलि शुभ ग्रह होकर अशुभ भाव अथवा अशुभ ग्रह की राशि में होने पर अपनी दशा/अन्तर्दशा के बीच वाले समय में विवाह के योग बना देता है..
जब विवाह कारक ग्रह शुक्र नैसर्गिक रुप से शुभ हों, तो गोचर में गुरू अथवा शनि से योग करने पर अपनी दशा/अन्तर्दशाओं में विवाह होने का योग बनाता है.

जन्म कुण्डली में शुक्र जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित हों, उस ग्रह की दशा/अंतर्दशा की अवधि में विवाह होने की प्रबल संभावनाएं होती है.

वास्तुजन्य दोष और रोग


वास्तुशास्त्र---अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन में निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.

इस विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर में स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमें निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.

यहाँ हम अपने पाठकों को जानकारी दे रहे हैं कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन न करने से पारिवारिक सदस्यों को किस तरह से नाना प्रकार के रोगों का सामना करना पड सकता है.

पूर्व दिशा में दोष:-
* यदि भवन में पूर्व दिशा का स्थान ऊँचा हो, तो व्यक्ति का सारा जीवन आर्थिक अभावों, परेशानियों में ही व्यतीत होता रहेगा और उसकी सन्तान अस्वस्थ, कमजोर स्मरणशक्ति वाली, पढाई-लिखाई में जी चुराने तथा पेट और यकृत के रोगों से पीडित रहेगी.

* यदि पूर्व दिशा में रिक्त स्थान न हो और बरामदे की ढलान पश्चिम दिशा की ओर हो, तो परिवार के मुखिया को आँखों की बीमारी, स्नायु अथवा ह्रदय रोग की स्मस्या का सामना करना पडता है.

* घर के पूर्वी भाग में कूडा-कर्कट, गन्दगी एवं पत्थर, मिट्टी इत्यादि के ढेर हों, तो गृहस्वामिनी में गर्भहानि का सामना करना पडता है.

* भवन के पश्चिम में नीचा या रिक्त स्थान हो, तो गृहस्वामी यकृत, गले, गाल ब्लैडर इत्यादि किसी बीमारी से परिवार को मंझधार में ही छोडकर अल्पावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.

* यदि पूर्व की दिवार पश्चिम दिशा की दिवार से अधिक ऊँची हो, तो संतान हानि का सामना करना पडता है.

* अगर पूर्व दिशा में शौचालय का निर्माण किया जाए, तो घर की बहू-बेटियाँ अवश्य अस्वस्थ रहेंगीं.
बचाव के उपाय:-
* पूर्व दिशा में पानी, पानी की टंकी, नल, हैंडापम्प इत्यादि लगवाना शुभ रहेगा.

* पूर्व दिशा का प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है, जो कि कालपुरूष के मुख का प्रतीक है. इसके लिए पूर्वी दिवार पर 'सूर्य यन्त्र' स्थापित करें और छत पर इस दिशा में लाल रंग का ध्वज(झंडा) लगायें.

* पूर्वी भाग को नीचा और साफ-सुथरा खाली रखने से घर के लोग स्वस्थ रहेंगें. धन और वंश की वृद्धि होगी तथा समाज में मान-प्रतिष्ठा बढेगी.

पश्चिम दिशा में दोष:-
पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है. यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है.

* यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार में फेफडे, मुख, छाती और चमडी इत्यादि के रोगों का सामना करना पडता है.

* यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान की रोग बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा.

* यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्यों को लम्बी बीमारियों का शिकार होना पडेगा.

* यदि भवन का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की ओर हो, तो अकारण व्यर्थ में धन का अपव्यय होता रहेगा.

* यदि पश्चिम दिशा की दिवार में दरारें आ जायें, तो गृहस्वामी के गुप्ताँग में अवश्य कोई बीमारी होगी.

* यदि पश्चिम दिशा में रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोडे-फिन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहेगी.

बचाव के उपाय:-
* ऎसी स्थिति में पश्चिमी दिवार पर 'वरूण यन्त्र' स्थापित करें.

* परिवार का मुखिया न्यूनतम 11 शनिवार लगातार उपवास रखें और गरीबों में काले चने वितरित करे.

* पश्चिम की दिवार को थोडा ऊँचा रखें और इस दिशा में ढाल न रखें.

* पश्चिम दिशा में अशोक का एक वृक्ष लगायें.

उत्तर दिशा में दोष-
उत्तर दिशा का प्रतिनिधि ग्रह बुध है और भारतीय वास्तुशास्त्र में इस दिशा को कालपुरूष का ह्रदय स्थल माना जाता है. जन्मकुंडली का चतुर्थ सुख भाव इसका कारक स्थान है.

* यदि उत्तर दिशा ऊँची हो और उसमें चबूतरे बने हों, तो घर में गुर्दे का रोग, कान का रोग, रक्त संबंधी बीमारियाँ, थकावट, आलस, घुटने इत्यादि की बीमारियाँ बनी रहेंगीं.

* यदि उत्तर दिशा अधिक उन्नत हो, तो परिवार की स्त्रियों को रूग्णता का शिकार होना पडता है.
बचाव के उपाय :-
यदि उत्तर दिशा की ओर बरामदे की ढाल रखी जाये, तो पारिवारिक सदस्यों विशेषतय: स्त्रियों का स्वास्थय उत्तम रहेगा. रोग-बीमारी पर अनावश्यक व्यय से बचे रहेंगें और उस परिवार में किसी को भी अकाल मृत्यु का सामना नहीं करना पडेगा.

* इस दिशा में दोष होने पर घर के पूजास्थल में 'बुध यन्त्र' स्थापित करें.

* परिवार का मुखिया 21 बुधवार लगातार उपवास रखे.

* भवन के प्रवेशद्वार पर संगीतमय घंटियाँ लगायें.

* उत्तर दिशा की दिवार पर हल्का हरा(Parrot Green) रंग करवायें.

दक्षिण दिशा में दोष:-
दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है, जो कि कालपुरूष के बायें सीने, फेफडे और गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली का दशम भाव इस दिशा का कारक स्थान होता है.

* यदि घर की दक्षिण दिशा में कुआँ, दरार, कचरा, कूडादान, कोई पुराना सामान इत्यादि हो, तो गृहस्वामी को ह्रदय रोग, जोडों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आँखों की बीमारी, कोलेस्ट्राल बढ जाना अथवा हाजमे की खराबीजन्य विभिन्न प्रकार के रोगों का सामना करना पडता है.

* दक्षिण दिशा में उत्तरी दिशा से कम ऊँचा चबूतरा बनाया गया हो, तो परिवार की स्त्रियों को घबराहट, बेचैनी, ब्लडप्रैशर, मूर्च्छाजन्य रोगों  से पीडा का कष्ट भोगना पडता है.

* यदि दक्षिणी भाग नीचा हो, ओर उत्तर से अधिक रिक्त स्थान हो, तो परिवार के वृद्धजन सदैव अस्वस्थ रहेंगें. उन्हे उच्चरक्तचाप, पाचनक्रिया की गडबडी, खून की कमी, अचानक मृत्यु अथवा दुर्घटना का शिकार होना पडेगा. दक्षिण पिशाच का निवास है, इसलिए इस तरफ थोडी जगह खाली छोडकर ही भवन का निर्माण करवाना चाहिए.

* यदि किसी का घर दक्षिणमुखी हो ओर प्रवेश द्वार नैऋत्याभिमुख बनवा लिया जाए, तो ऎसा भवन दीर्घ व्याधियाँ एवं किसी पारिवारिक सदस्य को अकाल मृत्यु देने वाला होता है.

बचाव के उपाय:-
* यदि दक्षिणी भाग ऊँचा हो, तो घर-परिवार के सभी सदस्य पूर्णत: स्वस्थ एवं संपन्नता प्राप्त करेंगें. इस दिशा में किसी प्रकार का वास्तुजन्य दोष होने की स्थिति में छत पर लाल रक्तिम रंग का एक ध्वज अवश्य लगायें.

* घर के पूजनस्थल में 'श्री हनुमंतयन्त्र' स्थापित करें.

* दक्षिणमुखी द्वार पर एक ताम्र धातु का 'मंगलयन्त्र'  लगायें.

* प्रवेशद्वार के अन्दर-बाहर दोनों तरफ दक्षिणावर्ती सूँड वाले गणपति जी की लघु प्रतिमा लगायें.

वृष लग्न की संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचना

आकाश के 30 डिग्री से 60 डिग्री तक के भाग को वृष राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्‍म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित हुआ दिखाई देता है, उस जातक का लग्‍न वृष माना जाता है. वृष लग्‍न की कुंडली में मन का कारक ग्रह चंद्रमा तृतीय भाव का स्‍वामी होता है और यह जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास इत्यादि का प्रतिनिधित्‍व करता है. इसलिए वृष लग्‍न के जातकों के मन को पूर्ण तौर पर संतुष्‍ट करने वाले ये सभी कार्य ही होते है. जन्‍मकुंडली एवम दशाकाल में चंद्र के शुभ रहने पर उपरोक्त वर्णित संदर्भों में जातक को शुभ फ़ल मिलकर वृष लग्‍न के जातक का मन प्रसन्न रहता है. यदि जन्‍मकुंडली या दशाकाल में चंद्र के कमजोर अथवा पाप प्रभाव में रहने पर उपरोक्त संदर्भों में अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं और जातक को मानसिक क्लेश की प्राप्ति होती है.

प्रकाश पुंज सूर्य वॄष लग्न में चतुर्थ भाव का स्‍वामी हो कर यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि संदर्भों का प्रतिनिधित्‍व करता है. जातक अपने नाम यश और कीर्ति के लिये चतुर्थ भाव के संदर्भों का उपयोग करता हैं. वॄष लग्न के जातकों का अपने नाम यश, कीर्ति प्रसिद्धि के लिए इनका सर्वाधिक ध्‍यान उपरोक्त वर्णित संदर्भों में लगा होता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के शुभ और बलवान रहने से जातक की कीर्ति यश फ़ैलकर बडे शुभकारी फ़ल प्राप्त होते हैं और सूर्य के कमजोर और पाप प्रभाव में रहने पर से उपरोक्त वर्णित संदर्भों में कमी से इनकी यश कीर्ति में कमी होती है.

सप्‍तम और द्वादश भाव का स्‍वामी वृष लग्‍न में मंगल होता है. सप्तमेश होने के नाते यह जातक के घर गृहस्‍थी सहित लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार इत्यादि का कारक होता है और द्वादशेश होने के नाते यह खर्च का प्रतिनिधित्‍व करता है. जाहिर है इस लग्‍न के जातकों के घर गृहस्‍थी (सप्तम भाव) के वातावरण में खर्च (द्वादश भाव) की अहम भूमिका होती है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल में मंगल के बलवान एवम शुभ प्रभाव में रहने पर वृष लग्‍न वाले जातक की खर्च शक्ति की योग्यता बढने से से घर गृहस्‍थी के कार्य कार्यान्वित करने में सुख और सहजता प्राप्त होती है. यदि जन्‍मकुंडली या दशाकाल में मंगल कमजोर हो अथवा पाप प्रभाव में हो तो जातक की खर्च शक्ति की कमी के कारण घर गृहस्‍थी का वातावरण कष्‍टमय हो जाता है.

शुक्र प्रथम और षष्‍ठ भाव का स्‍वामी होता है. लग्नेश होने के कारण यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. तथा षष्ठेष होने के कारण जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी जैसे सभी प्रकार के संदर्भों का प्रतिनिधित्‍व करता है. इन दोनों ही भावों का वृष लग्‍न के जातक के स्‍वास्‍थ्‍य और आत्‍म विश्‍वास से अति गहन संबंध होता है. जन्‍मकुंडली अथवा दशाकाल में शुक्र के शुभ प्रभाव व बलवान होने पर हर प्रकार से शरीर व स्वास्थ्य का लाभ होता है एवम वर्णित संदर्भों में शुभ फ़ल मिलकर जातक का आत्मविश्वास बढा हुआ होता है. इसके विपरीत जन्‍मकुंडली या दशाकाल में शुक्र के कमजोर या पाप प्रभाव में रहने पर उपरोक्‍त वर्णित विषयों में परेशानी पैदा होकर इनके स्‍वास्‍थ्‍य मे परेशानी एवम आत्‍म विश्‍वास में कमजोरी बनी रहती है.

बुध द्वितीय भाव का स्‍वामी होकर यह जातक के कुल, कुटुंब, विद्या, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्‍व करता है. जन्‍मकुंडली या दशाकाल बुध के शुभ प्रभाव में रहने पर वॄष लग्न के जातकों को उपरोक्त वर्णित विषयों में सहजता और शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं. जबकि इसके विपरीत बुध कमजोर या पाप प्रभावगत हो तो , उपरोक्त वर्णित संदर्भों में न्यूनता औए कठिनाईयो का सामना करना पडता है.

बृहस्‍पति अष्‍टम भाव का स्‍वामी होकर व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख का प्रतिनिधित्व करता है. जन्‍मकुंडली अथवा दशाकाल में बृहस्‍पति के बलवान एव शुभ प्रभाव में रहने पर उपरोक्त वर्णित विषयों में शुभ फ़लों की प्राप्ति होती है इसके विपरीत पाप प्रभाव एवम कमजोर वॄहस्पति के कारण इन फ़लों के विपरीत फ़ल प्राप्त होते हैं.

शनि नवम और दशम जैसे दो महत्वपूर्ण भावों का स्‍वामी होता है. यह नवमेश होने के नाते जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. एवम दशमेश होने के नाते यह राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति जैसे संदर्भों का प्रतिनिधी होता है. ये दोनों ही भाव वॄष लग्न के जातकों के धार्मिक, राजनैतिक सामाजिक जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. जन्मकुंडली या दशाकाल में शनि के बलवान व शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त वर्णित विषयों एवम मुख्यत भाग्य और कर्म से संबंधित अत्यधिक शुभ व सकारात्मक फ़लों की प्राप्ति होती है इसके विपरीत कमजोर व पाप प्रभाव में होने पर इन विषयों में अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.

राहु पंचम स्थान का स्वामी होकर पंचमेश बनता है और एक अत्यधिक महत्वपूर्ण त्रिकोण का स्वामी बनता है. और जीवन के अति महत्वपूर्ण विषयों जैसे बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली अथवा अपने दशाकाल में बलवान और शुभ प्रभाव गत राहु उपरोक्त विषयों में अत्यधिक शुभ फ़ल प्रदान करता है जबकि कमजोर एवम पाप प्रभाव गत राहु इन विषयों में न्य़ुनता देकर अशुभ फ़ल ही अधिक देता है.

केतु एकादश भाव का स्वामी होकर जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि भावों का प्रतिनिधि होता है. जनम्कुंडली मे अथवा अपने दशाकाल में बलवान व शुभ प्रभाव गत राहु अत्यंत शुभ फ़ल देकर सभी तरह से आमदनी बनाये रखता है वहीं कमजोर एवम अशुभ प्रभाव गत केतु उपरोक्त फ़लों में कमी करके अशुभ फ़ल प्रदान करता है.