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प्रकाश पुंज सूर्य वॄष लग्न में चतुर्थ भाव का स्वामी हो कर यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि संदर्भों का प्रतिनिधित्व करता है. जातक अपने नाम यश और कीर्ति के लिये चतुर्थ भाव के संदर्भों का उपयोग करता हैं. वॄष लग्न के जातकों का अपने नाम यश, कीर्ति प्रसिद्धि के लिए इनका सर्वाधिक ध्यान उपरोक्त वर्णित संदर्भों में लगा होता है. जन्मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के शुभ और बलवान रहने से जातक की कीर्ति यश फ़ैलकर बडे शुभकारी फ़ल प्राप्त होते हैं और सूर्य के कमजोर और पाप प्रभाव में रहने पर से उपरोक्त वर्णित संदर्भों में कमी से इनकी यश कीर्ति में कमी होती है.
सप्तम और द्वादश भाव का स्वामी वृष लग्न में मंगल होता है. सप्तमेश होने के नाते यह जातक के घर गृहस्थी सहित लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार इत्यादि का कारक होता है और द्वादशेश होने के नाते यह खर्च का प्रतिनिधित्व करता है. जाहिर है इस लग्न के जातकों के घर गृहस्थी (सप्तम भाव) के वातावरण में खर्च (द्वादश भाव) की अहम भूमिका होती है. जन्मकुंडली या दशाकाल में मंगल के बलवान एवम शुभ प्रभाव में रहने पर वृष लग्न वाले जातक की खर्च शक्ति की योग्यता बढने से से घर गृहस्थी के कार्य कार्यान्वित करने में सुख और सहजता प्राप्त होती है. यदि जन्मकुंडली या दशाकाल में मंगल कमजोर हो अथवा पाप प्रभाव में हो तो जातक की खर्च शक्ति की कमी के कारण घर गृहस्थी का वातावरण कष्टमय हो जाता है.
शुक्र प्रथम और षष्ठ भाव का स्वामी होता है. लग्नेश होने के कारण यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. तथा षष्ठेष होने के कारण जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी जैसे सभी प्रकार के संदर्भों का प्रतिनिधित्व करता है. इन दोनों ही भावों का वृष लग्न के जातक के स्वास्थ्य और आत्म विश्वास से अति गहन संबंध होता है. जन्मकुंडली अथवा दशाकाल में शुक्र के शुभ प्रभाव व बलवान होने पर हर प्रकार से शरीर व स्वास्थ्य का लाभ होता है एवम वर्णित संदर्भों में शुभ फ़ल मिलकर जातक का आत्मविश्वास बढा हुआ होता है. इसके विपरीत जन्मकुंडली या दशाकाल में शुक्र के कमजोर या पाप प्रभाव में रहने पर उपरोक्त वर्णित विषयों में परेशानी पैदा होकर इनके स्वास्थ्य मे परेशानी एवम आत्म विश्वास में कमजोरी बनी रहती है.
बुध द्वितीय भाव का स्वामी होकर यह जातक के कुल, कुटुंब, विद्या, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली या दशाकाल बुध के शुभ प्रभाव में रहने पर वॄष लग्न के जातकों को उपरोक्त वर्णित विषयों में सहजता और शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं. जबकि इसके विपरीत बुध कमजोर या पाप प्रभावगत हो तो , उपरोक्त वर्णित संदर्भों में न्यूनता औए कठिनाईयो का सामना करना पडता है.
बृहस्पति अष्टम भाव का स्वामी होकर व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली अथवा दशाकाल में बृहस्पति के बलवान एव शुभ प्रभाव में रहने पर उपरोक्त वर्णित विषयों में शुभ फ़लों की प्राप्ति होती है इसके विपरीत पाप प्रभाव एवम कमजोर वॄहस्पति के कारण इन फ़लों के विपरीत फ़ल प्राप्त होते हैं.
शनि नवम और दशम जैसे दो महत्वपूर्ण भावों का स्वामी होता है. यह नवमेश होने के नाते जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधित्व करता है. एवम दशमेश होने के नाते यह राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति जैसे संदर्भों का प्रतिनिधी होता है. ये दोनों ही भाव वॄष लग्न के जातकों के धार्मिक, राजनैतिक सामाजिक जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. जन्मकुंडली या दशाकाल में शनि के बलवान व शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त वर्णित विषयों एवम मुख्यत भाग्य और कर्म से संबंधित अत्यधिक शुभ व सकारात्मक फ़लों की प्राप्ति होती है इसके विपरीत कमजोर व पाप प्रभाव में होने पर इन विषयों में अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
राहु पंचम स्थान का स्वामी होकर पंचमेश बनता है और एक अत्यधिक महत्वपूर्ण त्रिकोण का स्वामी बनता है. और जीवन के अति महत्वपूर्ण विषयों जैसे बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली अथवा अपने दशाकाल में बलवान और शुभ प्रभाव गत राहु उपरोक्त विषयों में अत्यधिक शुभ फ़ल प्रदान करता है जबकि कमजोर एवम पाप प्रभाव गत राहु इन विषयों में न्य़ुनता देकर अशुभ फ़ल ही अधिक देता है.
केतु एकादश भाव का स्वामी होकर जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि भावों का प्रतिनिधि होता है. जनम्कुंडली मे अथवा अपने दशाकाल में बलवान व शुभ प्रभाव गत राहु अत्यंत शुभ फ़ल देकर सभी तरह से आमदनी बनाये रखता है वहीं कमजोर एवम अशुभ प्रभाव गत केतु उपरोक्त फ़लों में कमी करके अशुभ फ़ल प्रदान करता है.